14 साल की नाबालिग के गर्भपात को लेकर फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 'गर्भवती महिला' की जगह 'प्रेग्नेंट व्यक्ति' शब्द का इस्तेमाल किया। वहीं सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट भी किया कि आखिर उसने ऐसा क्यों किया है। सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस जेबी पारदीवाला, जस्टिस मनोज मिश्रा की बेंच ने बताया कि जन्म से महिला पहचान के साथ जीने वालों के अलावा भी प्रेग्नेंसी के चांस रहते हैं। जैसे कि नॉन बाइनरी लोग या फिर ट्रांसजेंडर पुरुष भी प्रेग्नेंट हो सकते हैं। ऐसे में उन्होंने अपने फैसले में प्रेग्नेंट व्यक्ति शब्द का इस्तेमाल करना उचित समझा।

आपको बता दें कि वे लोग जो महिला और पुरुष की पहचान के बीच अपना जीवन गुजारते हैं। उन्हें नॉन बाइनरी की श्रेणी में रखा जाता है। इस मामले में एक नाबालिग यौन उत्पीड़ने के बाद प्रेग्नेंट हो गई थी। मेडिकल बोर्ड का विचार था कि नाबालिग गर्भपात के लिए मानसिक और शारीरिक रूप से फिट है। पीड़िता ने बॉम्बे हाई कोर्ट में गर्भपात के लिए अर्जी दी थी। उस समय वह 27 हफ्ते की प्रेग्नेंट थी।

एक अन्य ओपिनियन में मेडिकल बोर्ड ने कहा कि भ्रूण गेस्टेशनल एज से ऊपर हो चुका है वहीं उसमें कोई कमी भी नहीं है। इसके बाद हाई कोर्ट ने ही याचिका खारिज कर दी थी। इसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और री-एग्जामिन करने का आदेश दिया गया। इसके बाद मेडिकल बोर्ड ने गर्भपात को सही बताया और कहा कि गर्भ को रखने से नाबालिग के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। इसके बाद 22 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने गर्भपात की इजाजत दे दी।

हालांकि बाद में नाबालिग के पैरंट्स को लगा कि 30 हफ्ते का गर्भ हो चुका है और ऐसे में गर्भपात करवाने पर बच्ची के स्वास्थ्य पर असर  पड़ सकता है। बच्ची के लिए खतरा भी हो सकता है। मां-बाप की च्ता क ध्यान में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला वापस ले लिया। बता दें कि सीजेआई ने सुनवाई वडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से की थी। कोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार को भी आदेश दिया था कि बच्चे की गर्भावस्था पूरी होने तक सरकार को सहयोग देना होगा। बता दें  कि मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी ऐक्ट 1971 के तहत  गर्भपात की अधिकतम मियाद 24 सप्ताह है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 142 के तहत विशेष शक्ति का इस्तेमाल करते हुए गर्भपात की इजाजत दे दी थी। 

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